26 जनवरी की हिंसा ने सरकार को दिया मौक़ा, किसान आंदोलन के भविष्य पर सवाल

26 जनवरी को दिल्ली में जो कुछ हुआ, उसका गवाह सारा भारत बना। इतिहास बताता है कि जनभागीदारी वाले आंदोलन में अक्सर हिंसा हो जाती है और वो अपनी वैधता खो देता है।फिर, न सिर्फ सरकार के लिए आंदोलन का दमन करना आसान हो जाता है बल्कि समाज भी किनारा कर लेता है।
शायद कुछ ऐसा ही अब कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन के साथ हो रहा है। पुलिसवालो के साथ हिंसा से लेकर तिरंगे का अपमान तक, सभी आरोप किसान आंदोलनकारियों पर लगाए जा रहे हैं। ताज़ा जानकारी के मुताबिक सिंघू बॉर्डर पर जहा पिछले 60 दिनों से ज्यादा शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन चल रहा था, वहाँ अब स्थानीय लोग किसानों से बॉर्डर खाली करने के लिए नारे लगाते नज़र आ रहे हैं।
कुछ यही हाल हरियाणा में भी देखने को मिल रहा है, जहाँ रेवाड़ी में बैठे किसानो को रोड खाली करने के लिए स्थानीय लोगों ने 24 घंटे का अल्टीमेटम दिया है। यहाँ डूंगरबाँस गांव में करीब 20 गावों की पंचायत हुई और दिल्ली जयपुर हाईवे पर मसानी बराज पर डेढ़ महीने से बैठे किसानों से पूरा इलाका खाली करने की मांग की। इसके अलावा शाहाबाद क्षेत्र के पास बैठे किसान भी ग्रामीणों की चेतावनी के बाद उस इलाके को खाली करके जा चुके हैं। सोशल मीडिया पर भी किसानों के खिलाफ एक अभियान चलाया जा रहा है की कैसे सरकार को अब किसानों की 'मरम्मत' करनी चाहिए। ज़ाहिर है, सरकार को 26 जनवरी की हिंसा से आंदोलन ख़त्म करने का बहाना मिल गया। इसकी सबसे पहले बानगी देखने को मिली है उत्तर प्रदेश में, जहाँ योगी आदित्यनाथ की सरकार ने राज्य के तीनों स्थानों -चिल्ला बॉर्डर और नॉएडा के राष्ट्रीय प्रेरणा स्थल और बागपत में चल रहे किसानों के धरनों को हटा दिया। सुबह से खबरे आ रही है की ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर भी पुलिस का जमावड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। पुलिस के अलावा यूपी रोडवेज के दर्ज़नो बसों को लाया जा रहा है की जिससे यह आशंका पैदा हो रही है की किसानों को जबरन हटाने की कार्रवाई जल्द शुरू हो सकती है। इस बात में कोई दो राय नहीं की 99 फीसदी किसानों ने तयशुदा रूट पर ही अपनी परेड निकाली और पूरी तरह से हिंसा से दूर रहे लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता की कुछ किसानों ने न सिर्फ कानून हाथ में लिया बल्कि लाल क़िले पर चढाई कर देश के सम्मान को धक्का पहुंचाया। इस घटना के बाद दो किसान संगठन धरने से वापिस लौट चुके है और किसान नेताओं में समन्वय की कमी साफ़ देखी जा सकती है। कुल मिलाकर कहें तो दुनिया का सबसे बड़ा कृषि आंदोलन फ़िलहाल बेहद नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है और इसकी विफलता कॉर्पोरेट जगत के लिए एक बड़ी जीत साबित हो सकती है।
कुछ यही हाल हरियाणा में भी देखने को मिल रहा है, जहाँ रेवाड़ी में बैठे किसानो को रोड खाली करने के लिए स्थानीय लोगों ने 24 घंटे का अल्टीमेटम दिया है। यहाँ डूंगरबाँस गांव में करीब 20 गावों की पंचायत हुई और दिल्ली जयपुर हाईवे पर मसानी बराज पर डेढ़ महीने से बैठे किसानों से पूरा इलाका खाली करने की मांग की। इसके अलावा शाहाबाद क्षेत्र के पास बैठे किसान भी ग्रामीणों की चेतावनी के बाद उस इलाके को खाली करके जा चुके हैं। सोशल मीडिया पर भी किसानों के खिलाफ एक अभियान चलाया जा रहा है की कैसे सरकार को अब किसानों की 'मरम्मत' करनी चाहिए। ज़ाहिर है, सरकार को 26 जनवरी की हिंसा से आंदोलन ख़त्म करने का बहाना मिल गया। इसकी सबसे पहले बानगी देखने को मिली है उत्तर प्रदेश में, जहाँ योगी आदित्यनाथ की सरकार ने राज्य के तीनों स्थानों -चिल्ला बॉर्डर और नॉएडा के राष्ट्रीय प्रेरणा स्थल और बागपत में चल रहे किसानों के धरनों को हटा दिया। सुबह से खबरे आ रही है की ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर भी पुलिस का जमावड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। पुलिस के अलावा यूपी रोडवेज के दर्ज़नो बसों को लाया जा रहा है की जिससे यह आशंका पैदा हो रही है की किसानों को जबरन हटाने की कार्रवाई जल्द शुरू हो सकती है। इस बात में कोई दो राय नहीं की 99 फीसदी किसानों ने तयशुदा रूट पर ही अपनी परेड निकाली और पूरी तरह से हिंसा से दूर रहे लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता की कुछ किसानों ने न सिर्फ कानून हाथ में लिया बल्कि लाल क़िले पर चढाई कर देश के सम्मान को धक्का पहुंचाया। इस घटना के बाद दो किसान संगठन धरने से वापिस लौट चुके है और किसान नेताओं में समन्वय की कमी साफ़ देखी जा सकती है। कुल मिलाकर कहें तो दुनिया का सबसे बड़ा कृषि आंदोलन फ़िलहाल बेहद नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है और इसकी विफलता कॉर्पोरेट जगत के लिए एक बड़ी जीत साबित हो सकती है।
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