जानिए क्या होते हैं 'इलेक्टोरल बॉन्ड' जिसकी बिक्री पर रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने किया इनकार

सुप्रीम कोर्ट ने चार राज्य और एक केंद्रशासित प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले आगामी 1 अप्रैल से इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है। हालांकि, इलेक्टोरल बॉन्ड शुरू से ही विवादों में घिरा रहा है और हमेशा से इसके दुरुपयोग का मामला भी उठता ही रहा है।
सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका में आरोप लगाया गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए सत्ताधारी दल को चंदे के नाम पर घूस देने का काम हो रहा है। इसे रुकना चाहिए।
पर इन सबके बीच सवाल यह उठता है कि आख़िर ये इलेक्टोरल बॉन्ड है क्या और इसे लेकर विवाद क्या है? 2017 के बजट में उस वक्त के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को पेश किया था। 29 जनवरी 2018 को केंद्र सरकार ने इसे नोटिफाई किया। ये एक तरह का प्रोमिसरी नोट होता है। जिसे बैंक नोट भी कहते हैं। इसे कोई भी भारतीय नागरिक या कंपनी ख़रीद सकती है। अगर आप इसे ख़रीदना चाहते हैं तो आपको ये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चुनी हुई ब्रांच में मिल जाएगा। इसे ख़रीदने वाला इस बॉन्ड को अपनी पसंद की पार्टी को डोनेट कर सकता है। बॉन्ड ख़रीदने वाला 1 हज़ार से लेकर 1 करोड़ रुपए तक का बॉन्ड ख़रीद सकता है। ख़रीदने वाला जिस पार्टी को ये बॉन्ड डोनेट करना चाहता है, उसे पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम 1% वोट मिला होना चाहिए। डोनर के बॉन्ड डोनेट करने के 15 दिन के अंदर इसे उस पार्टी को चुनाव आयोग से वैरिफाइड बैंक अकाउंट से कैश करवाना होता है। क्यूँकि चुनावों से पहले ही यह मुद्दा उठता है तो कई बार ऐसा भी माना जाता है कि यह सिर्फ़ चुनावों से पहले ख़रीदे जाते हैं। आपको बता दें कि इलेक्टोरल बॉन्ड को किसी भी क्वॉर्टर की पहली 10 तारीखों में ही ख़रीद जा सकता है। यानी- जनवरी, अप्रैल, जुलाई और सिंतबर महीने के 1 से 10 तारीख के बीच आप इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीद सकते हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि इलेक्टोरल बॉन्ड पर डोनर का नाम नहीं होता है। उसकी डीटेल सिर्फ बैंक के पास होती है। ये ज़रूर है कि इलेक्टोरल बॉन्ड डोनेट करने वाले को टैक्स में छूट मिलती है। वहीं, इसे पाने वाली पार्टी को भी टैक्स नहीं देना पड़ता है। हालांकि दोनों को अपने टैक्स रिटर्न में इसे दिखाना होता है। सरकार डोनर की पहचान गुप्त रखने का दावा ज़रूर करती है, लेकिन टैक्स रिटर्न में इसका ज़िक्र होने से इसकी जानकारी सरकार के पास होने की बात भी कही जाती है। 2017 में अरुण जेटली ने इसे पेश करते वक्त दावा किया था कि इससे राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाली फंडिंग और चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी। कालेधन पर अंकुश लगेगा। लेकिन, इसका विरोध करने वाले कहते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने वाले की पहचान जाहिर नहीं की जाती है, इससे ये चुनावों में काले धन के इस्तेमाल का ज़रिया बन सकते हैं। ऐसी शेल कंपनियों का गठन हो सकता है जो सिर्फ चुनावी चंदे के लिए बनाई गई हों। वहीं, कुछ लोगों का आरोप है कि इस स्कीम को बड़े कॉर्पोरेट घरानों को ध्यान में रखकर लाया गया है। इससे ये घराने बिना पहचान उजागर हुए जितना मर्ज़ी उतना चंदा राजनीतिक पार्टियों को दे सकते हैं। पर दूसरी तरफ सरकार लगातार इस स्कीम का बचाव करती रही है। वहीं आपको बता दें कि ADR के मुताबिक 2017 में ये स्कीम आने के बाद पहले ही साल राजनीतिक पार्टियों को 222 करोड़ रुपए का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए मिला। इसमें से 210 करोड़ रुपए अकेले भाजपा को मिले। कांग्रेस को 5 करोड़ रुपए और अन्य पार्टियों को महज 7 करोड़ रुपए का चंदा मिला।
पर इन सबके बीच सवाल यह उठता है कि आख़िर ये इलेक्टोरल बॉन्ड है क्या और इसे लेकर विवाद क्या है? 2017 के बजट में उस वक्त के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को पेश किया था। 29 जनवरी 2018 को केंद्र सरकार ने इसे नोटिफाई किया। ये एक तरह का प्रोमिसरी नोट होता है। जिसे बैंक नोट भी कहते हैं। इसे कोई भी भारतीय नागरिक या कंपनी ख़रीद सकती है। अगर आप इसे ख़रीदना चाहते हैं तो आपको ये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चुनी हुई ब्रांच में मिल जाएगा। इसे ख़रीदने वाला इस बॉन्ड को अपनी पसंद की पार्टी को डोनेट कर सकता है। बॉन्ड ख़रीदने वाला 1 हज़ार से लेकर 1 करोड़ रुपए तक का बॉन्ड ख़रीद सकता है। ख़रीदने वाला जिस पार्टी को ये बॉन्ड डोनेट करना चाहता है, उसे पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम 1% वोट मिला होना चाहिए। डोनर के बॉन्ड डोनेट करने के 15 दिन के अंदर इसे उस पार्टी को चुनाव आयोग से वैरिफाइड बैंक अकाउंट से कैश करवाना होता है। क्यूँकि चुनावों से पहले ही यह मुद्दा उठता है तो कई बार ऐसा भी माना जाता है कि यह सिर्फ़ चुनावों से पहले ख़रीदे जाते हैं। आपको बता दें कि इलेक्टोरल बॉन्ड को किसी भी क्वॉर्टर की पहली 10 तारीखों में ही ख़रीद जा सकता है। यानी- जनवरी, अप्रैल, जुलाई और सिंतबर महीने के 1 से 10 तारीख के बीच आप इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीद सकते हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि इलेक्टोरल बॉन्ड पर डोनर का नाम नहीं होता है। उसकी डीटेल सिर्फ बैंक के पास होती है। ये ज़रूर है कि इलेक्टोरल बॉन्ड डोनेट करने वाले को टैक्स में छूट मिलती है। वहीं, इसे पाने वाली पार्टी को भी टैक्स नहीं देना पड़ता है। हालांकि दोनों को अपने टैक्स रिटर्न में इसे दिखाना होता है। सरकार डोनर की पहचान गुप्त रखने का दावा ज़रूर करती है, लेकिन टैक्स रिटर्न में इसका ज़िक्र होने से इसकी जानकारी सरकार के पास होने की बात भी कही जाती है। 2017 में अरुण जेटली ने इसे पेश करते वक्त दावा किया था कि इससे राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाली फंडिंग और चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी। कालेधन पर अंकुश लगेगा। लेकिन, इसका विरोध करने वाले कहते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने वाले की पहचान जाहिर नहीं की जाती है, इससे ये चुनावों में काले धन के इस्तेमाल का ज़रिया बन सकते हैं। ऐसी शेल कंपनियों का गठन हो सकता है जो सिर्फ चुनावी चंदे के लिए बनाई गई हों। वहीं, कुछ लोगों का आरोप है कि इस स्कीम को बड़े कॉर्पोरेट घरानों को ध्यान में रखकर लाया गया है। इससे ये घराने बिना पहचान उजागर हुए जितना मर्ज़ी उतना चंदा राजनीतिक पार्टियों को दे सकते हैं। पर दूसरी तरफ सरकार लगातार इस स्कीम का बचाव करती रही है। वहीं आपको बता दें कि ADR के मुताबिक 2017 में ये स्कीम आने के बाद पहले ही साल राजनीतिक पार्टियों को 222 करोड़ रुपए का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए मिला। इसमें से 210 करोड़ रुपए अकेले भाजपा को मिले। कांग्रेस को 5 करोड़ रुपए और अन्य पार्टियों को महज 7 करोड़ रुपए का चंदा मिला।
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