सेना में एडल्ट्री क़ानून बहाल करने को सुप्रीम कोर्ट पहुँचा केन्द्र
जानकार इस क़ानून में कई ख़ामियां बताते हैं। जानकार मानते हैं कि यह क़ानून महिलाओं को सिर्फ शारीरिक संबंध के लिए सहमति देने तक ही सीमित करता था।

केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर सेना में एडल्ट्री या व्याभिचार क़ानून को बहाल करने की मांग की है। 2018 में तत्कालीन चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्र की अध्यक्षता में गठित पांच सदस्यीय बेंच ने एडल्ट्री क़ानून को रद्द कर दिया था। जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपने फैसले में कहा था कि ऐसा कोई भी क़ानून जो 'व्यक्ति कि गरिमा' और 'महिलाओं के साथ समान व्यवहार' को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है, वो संविधान के ख़िलाफ़ है।
अगस्त 2018 में आते इस फ़ैसले में अंग्रेज़ो के समय से लागू आईपीसी की धारा 497 को ग़ैरक़ानूनी क़रार देते हुए कहा था, ‘शादी में पति अपनी पत्नी का मालिक नहीं होता है। महिला या पुरुष में से किसी भी एक की दूसरे पर क़ानूनी सम्प्रभुता सिरे से ग़लत है।’ जस्टिस मिश्रा समेत जस्टिस रोहिंगटन नरीमन, जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने एकमत से अपना फैसला सुनाया था।
तब कोर्ट ने कहा था, ‘धारा 497, अनुच्छेद 14 और 15 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करता है क्योंकि यह लिंग के आधार पर भेदभाव करता है और इसके तहत सिर्फ पुरुषों को अपराधी माना जाता है। एडल्ट्री को अपराध मानना एक ‘पुराना विचार’ है जिसमें पुरुष को अपराधी और महिला को पीड़ित माना जाता है लेकिन मौजूदा समय में हालात बदल गए हैं।’ कोर्ट का मानना था कि आईपीसी की यह धारा उस सिद्धांत पर आधारित है जिसमें कहा जाता है कि शादी के बाद महिलाएं अपनी पहचान और क़ानूनी अधिकार खो देती हैं जो कि मौलिक अधिकार का उल्लंघन है और यह सिद्धांत क़ानूनी तौर पर मान्य भी नहीं है। व्याभिचार अनैतिक ज़रूर हो सकता है लेकिन इसे गै़रक़ानूनी नहीं माना जा सकता। अब रक्षा मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाख़िल कर सेना में इस क़ानून को बहाल करने की मांग की है। मंत्रालय की दलील है कि सेना में किसी सहयोगी की पत्नी के साथ संबंध बनाने पर नौकरी से निकाले जाने तक का प्रावधान बना रहना चाहिए। अगस्त 2018 में कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए केन्द्र सरकार ने कहा था कि ‘शादी की संस्था’ को बचाए रखने के लिए एडल्ट्री के ख़िलाफ़ क़ानून ज़रूरी है। सरकार ने कोर्ट में कहा था कि इस क़ानून को रद्द करना भारतीय संदर्भ में 'परिवार और शादी की पवित्रता' के साथ-साथ भारतीय मूल्यों पर चोट है। 1ं960 में आईपीसी में एक धारा 497 जोड़ी गई थी। इस क़ानून में प्रावधान था कि अगर कोई मर्द किसी दूसरी शादीशुदा महिला के साथ उसकी सहमति से शारीरिक संबंध बनाता है, तो महिला के पति के शिकायत पर मर्द के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाया जा सकता था। क़ानून के मुताबिक़ ऐसे हालात में पुरुष को पांच साल की क़ैद और जुर्माना या फिर दोनों ही सज़ा का प्रवाधान था। जबकि इस क़ानून के तहत महिलाओं को दोषी नहीं माना जा सकता था। क़ानून में यह कहा गया था कि ‘महिलाएं कभी भी उकसाने और शादी के बाद संबंध बनाने की शुरुआत नहीं करती।’ जानकार इस क़ानून में कई ख़ामियां बताते हैं। जानकार मानते हैं कि यह क़ानून महिलाओं को सिर्फ शारीरिक संबंध के लिए सहमति देने तक ही सीमित करता था। जानकार क़ानून में एक ख़ामी यह भी गिनाते हैं कि इस क़ानून के तहत महिला सहमति से संबंध तो बना सकती थी लेकिन उनके लिए सज़ा का कोई प्रावधान नहीं था। रक्षा मंत्रालय की याचिका पर जस्टिस नरीमन की अध्यक्षता वाली बेंच ने एक नोटिस जारी कर मामले को चीफ जस्टिस एसए बोबड़े के पास भेजने का सुझाव दिया है। उन्होंने कहा, ‘चूँकि पाँच जजों की बेंच ने इसपर फ़ैसला दिया था इसलिए इस याचिका को चीफ़ जस्टिस के पास भेजा जाना चाहिए ताकि कोई उसी तरह की बेंच बनायी जा सके।’
तब कोर्ट ने कहा था, ‘धारा 497, अनुच्छेद 14 और 15 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करता है क्योंकि यह लिंग के आधार पर भेदभाव करता है और इसके तहत सिर्फ पुरुषों को अपराधी माना जाता है। एडल्ट्री को अपराध मानना एक ‘पुराना विचार’ है जिसमें पुरुष को अपराधी और महिला को पीड़ित माना जाता है लेकिन मौजूदा समय में हालात बदल गए हैं।’ कोर्ट का मानना था कि आईपीसी की यह धारा उस सिद्धांत पर आधारित है जिसमें कहा जाता है कि शादी के बाद महिलाएं अपनी पहचान और क़ानूनी अधिकार खो देती हैं जो कि मौलिक अधिकार का उल्लंघन है और यह सिद्धांत क़ानूनी तौर पर मान्य भी नहीं है। व्याभिचार अनैतिक ज़रूर हो सकता है लेकिन इसे गै़रक़ानूनी नहीं माना जा सकता। अब रक्षा मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाख़िल कर सेना में इस क़ानून को बहाल करने की मांग की है। मंत्रालय की दलील है कि सेना में किसी सहयोगी की पत्नी के साथ संबंध बनाने पर नौकरी से निकाले जाने तक का प्रावधान बना रहना चाहिए। अगस्त 2018 में कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए केन्द्र सरकार ने कहा था कि ‘शादी की संस्था’ को बचाए रखने के लिए एडल्ट्री के ख़िलाफ़ क़ानून ज़रूरी है। सरकार ने कोर्ट में कहा था कि इस क़ानून को रद्द करना भारतीय संदर्भ में 'परिवार और शादी की पवित्रता' के साथ-साथ भारतीय मूल्यों पर चोट है। 1ं960 में आईपीसी में एक धारा 497 जोड़ी गई थी। इस क़ानून में प्रावधान था कि अगर कोई मर्द किसी दूसरी शादीशुदा महिला के साथ उसकी सहमति से शारीरिक संबंध बनाता है, तो महिला के पति के शिकायत पर मर्द के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाया जा सकता था। क़ानून के मुताबिक़ ऐसे हालात में पुरुष को पांच साल की क़ैद और जुर्माना या फिर दोनों ही सज़ा का प्रवाधान था। जबकि इस क़ानून के तहत महिलाओं को दोषी नहीं माना जा सकता था। क़ानून में यह कहा गया था कि ‘महिलाएं कभी भी उकसाने और शादी के बाद संबंध बनाने की शुरुआत नहीं करती।’ जानकार इस क़ानून में कई ख़ामियां बताते हैं। जानकार मानते हैं कि यह क़ानून महिलाओं को सिर्फ शारीरिक संबंध के लिए सहमति देने तक ही सीमित करता था। जानकार क़ानून में एक ख़ामी यह भी गिनाते हैं कि इस क़ानून के तहत महिला सहमति से संबंध तो बना सकती थी लेकिन उनके लिए सज़ा का कोई प्रावधान नहीं था। रक्षा मंत्रालय की याचिका पर जस्टिस नरीमन की अध्यक्षता वाली बेंच ने एक नोटिस जारी कर मामले को चीफ जस्टिस एसए बोबड़े के पास भेजने का सुझाव दिया है। उन्होंने कहा, ‘चूँकि पाँच जजों की बेंच ने इसपर फ़ैसला दिया था इसलिए इस याचिका को चीफ़ जस्टिस के पास भेजा जाना चाहिए ताकि कोई उसी तरह की बेंच बनायी जा सके।’
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