कोरोना: लगभग आधे डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों ने नहीं लगाया टीका

भारत सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद कोरोना टीकाकरण अभियान रफ्तार नहीं पकड़ पा रहा है। साइड इफेक्ट्स का डर और टीके के असर को लेकर बने संदेह की वजह से डॉक्टर और अन्य हेल्थ केयर वर्कर भी इससे दूरी बना रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि यह कोई नई बात नहीं है क्योंकि जब भी कोई नई वैक्सीन आती है, संदेह रहते ही हैं। चेचक से लेकर पोलियो तक, हर वैक्सीन को शुरुआत में संदेह की नज़र से ही देखा गया था।
भारत में कोरोना टीकाकरण 16 जनवरी को शुरू हुआ था। 26 जनवरी तक 20 लाख 29 हजार 424 लोगों को टीका लग चुका है। इस हिसाब से क़रीब 54.5% लोग ही वैक्सीन लगवाने के लिए सामने आये हैं जबकि फिलहाल टीके डाक्टरों और हेल्थ केयर से जुड़े लोगों के प्रायोरिटी ग्रुप को लगने हैं। इस लिहाज से इस ग्रुप के 100 में से 45.5 लोगों ने वैक्सीन नहीं लगवाई है।
इसके अलावा कोवीशील्ड वैक्सीन की शीशी के साथ भी दिक्कत है। इसे खुला नहीं छोड़ा जा सकता। शीशी खोलने के चार घंटे के भीतर उसका इस्तेमाल करना होता है। ऐसे में ज़्यादा लोग न आने से वैक्सीन की डोज भी बर्बाद हो रही है। कुछ राज्यों ने तो स्पॉट रजिस्ट्रेशन कर वैक्सीन लगाने का तरीका अपनाया है ताकि वैक्सीन की बर्बादी रुक सके। पर यह कोई हल नहीं हो सकता, खासकर, जब अगले चरण में और अधिक लोगों को वैक्सीन लगने वाली है। भारत सरकार ने सबसे पहले एक करोड़ हेल्थ केयर वर्कर्स और दो करोड़ फ्रंटलाइन वर्कर्स को टीका लगवाने की योजना बनाया है। दुनियाभर में अफवाह है कि कोरोना वैक्सीन से डीएनए में भी बदलाव हो सकता है। खासकर यह बात फाइजर और मॉडर्ना की mRNA तकनीक से बनी वैक्सीन के लिए कही जा रही है। mRNA या मैसेंजर RNA जेनेटिक कोड का छोटा हिस्सा होता है जो कोशिका में प्रोटीन निर्माण करता है। यह इंसान की प्रतिरोधी तंत्र का खास भूमिका निभाता है। मोडर्ना और फाइजर दोनों वैक्सीन में मैसेंजर RNA का उपयोग प्रतिरोधी क्षमता को सुरक्षित एंटी बॉडीज पैदा करने के लिए प्रेरित करती हैं और इसके लिए उन्हें वास्तविक वायरस की भी जरूरत नहीं होती है। सबसे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि भारत में डॉक्टरों को ही वैक्सीन पर विश्वास नहीं हो पा रहा है। वजह यह है कि वैक्सीन को अप्रूवल मिलने में आम तौर पर 8-9 साल लग जाते हैं लेकिन कोरोना वैक्सीन एक साल से भी कम समय में आ गयी। डॉक्टरों को भी लग रहा है कि परीक्षण के सभी चरणों से गुज़रे बिना ही जल्दबाज़ी में वैक्सीन लायी गयी है। कोवीशील्ड के फेज-3 ट्रायल्स विदेश में हुए हैं और उसकी प्रभाव-क्षमता 62 से 90 प्रतिशत के बीच रही है। वहीं, कोवैक्सिन के अब तक बड़े स्तर पर होने वाले फेज-3 क्लीनिकल ट्रायल्स भी पूरे नहीं हुए हैं। इस वजह से उसके प्रभाव का ठीक आकलन नहीं हो पाया है। यही वजह है कि मेडिकल फील्ड में काम करने वाले भी वैक्सीन से बचते दिख रहे हैं। वैसे, यह बात भी सच है कि जब भी कोई वैक्सीन प्रोग्राम आया है, उसे किसी न किसी तरह की अफवाहों का सामना करना पड़ा है। पोलियो वैक्सीन को लेकर अफवाह थी कि यह बच्चों में फर्टिलिटी को प्रभावित करेगी। यह भी अफवाह थी कि ओरल पोलियो वैक्सीन में सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन को यह सफाई देनी पड़ी थी कि वैक्सीन में सुअर या उससे निकाले किसी पदार्थ का इस्तेमाल नहीं हुआ है। वहीं कई हेल्थ एक्सपर्ट्स का कहना है कि एकेडेमिक्स को ट्रायल्स से सामने आये डेटा देना चाहिए। इससे वे नतीजों को डीकोड करेंगे और पारदर्शिता आएगी। वरना, टीके को लेकर संदेह बना ही रहेगा।
इसके अलावा कोवीशील्ड वैक्सीन की शीशी के साथ भी दिक्कत है। इसे खुला नहीं छोड़ा जा सकता। शीशी खोलने के चार घंटे के भीतर उसका इस्तेमाल करना होता है। ऐसे में ज़्यादा लोग न आने से वैक्सीन की डोज भी बर्बाद हो रही है। कुछ राज्यों ने तो स्पॉट रजिस्ट्रेशन कर वैक्सीन लगाने का तरीका अपनाया है ताकि वैक्सीन की बर्बादी रुक सके। पर यह कोई हल नहीं हो सकता, खासकर, जब अगले चरण में और अधिक लोगों को वैक्सीन लगने वाली है। भारत सरकार ने सबसे पहले एक करोड़ हेल्थ केयर वर्कर्स और दो करोड़ फ्रंटलाइन वर्कर्स को टीका लगवाने की योजना बनाया है। दुनियाभर में अफवाह है कि कोरोना वैक्सीन से डीएनए में भी बदलाव हो सकता है। खासकर यह बात फाइजर और मॉडर्ना की mRNA तकनीक से बनी वैक्सीन के लिए कही जा रही है। mRNA या मैसेंजर RNA जेनेटिक कोड का छोटा हिस्सा होता है जो कोशिका में प्रोटीन निर्माण करता है। यह इंसान की प्रतिरोधी तंत्र का खास भूमिका निभाता है। मोडर्ना और फाइजर दोनों वैक्सीन में मैसेंजर RNA का उपयोग प्रतिरोधी क्षमता को सुरक्षित एंटी बॉडीज पैदा करने के लिए प्रेरित करती हैं और इसके लिए उन्हें वास्तविक वायरस की भी जरूरत नहीं होती है। सबसे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि भारत में डॉक्टरों को ही वैक्सीन पर विश्वास नहीं हो पा रहा है। वजह यह है कि वैक्सीन को अप्रूवल मिलने में आम तौर पर 8-9 साल लग जाते हैं लेकिन कोरोना वैक्सीन एक साल से भी कम समय में आ गयी। डॉक्टरों को भी लग रहा है कि परीक्षण के सभी चरणों से गुज़रे बिना ही जल्दबाज़ी में वैक्सीन लायी गयी है। कोवीशील्ड के फेज-3 ट्रायल्स विदेश में हुए हैं और उसकी प्रभाव-क्षमता 62 से 90 प्रतिशत के बीच रही है। वहीं, कोवैक्सिन के अब तक बड़े स्तर पर होने वाले फेज-3 क्लीनिकल ट्रायल्स भी पूरे नहीं हुए हैं। इस वजह से उसके प्रभाव का ठीक आकलन नहीं हो पाया है। यही वजह है कि मेडिकल फील्ड में काम करने वाले भी वैक्सीन से बचते दिख रहे हैं। वैसे, यह बात भी सच है कि जब भी कोई वैक्सीन प्रोग्राम आया है, उसे किसी न किसी तरह की अफवाहों का सामना करना पड़ा है। पोलियो वैक्सीन को लेकर अफवाह थी कि यह बच्चों में फर्टिलिटी को प्रभावित करेगी। यह भी अफवाह थी कि ओरल पोलियो वैक्सीन में सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन को यह सफाई देनी पड़ी थी कि वैक्सीन में सुअर या उससे निकाले किसी पदार्थ का इस्तेमाल नहीं हुआ है। वहीं कई हेल्थ एक्सपर्ट्स का कहना है कि एकेडेमिक्स को ट्रायल्स से सामने आये डेटा देना चाहिए। इससे वे नतीजों को डीकोड करेंगे और पारदर्शिता आएगी। वरना, टीके को लेकर संदेह बना ही रहेगा।
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