अबकी बार 'डीज़ल' पेट्रोल के पार

लोगों की नौकरियाँ जा रही हैं। काम धंधे चौपट हैं। दो वक़्त की रोटी भी मुश्किल से मिल रही है और सरकार लगातार तेल की क़ीमत बढ़ाती जा रही है। पेट्रोल डीज़ल के दाम बढ़ने से महँगाई बढ़ेगी। अब ऐसे में जनता कोरोना से लड़े या महंगाई से?
सरकार तेल के दाम क्यों बढ़ा रही है? पेट्रोल-डीज़ल के दाम क्यों बढ़ रहे हैं? ये तब हो रहा है जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत घटी हुई है। असल में ये सरकार के ख़ज़ाने में तुरंत पैसे बढ़ाने का सबसे आसान और सीधा तरीक़ा है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ने का कारण है सरकार की गिरती कमाई को रोकना ताकि इसका राजकोषीय घाटा कम हो सके।
दिल्ली में डीज़ल की कीमत पेट्रोल के पार चली गई है। बाक़ी देश भर में पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमत लगभग बराबर है, दोनों के रेट में सिर्फ कुछ पैसों का अंतर है। दिल्ली में डीज़ल सबसे महँगा है। उसके बाद मुंबई, चेन्नई, पटना और बंगलुरु का नम्बर आता है। कोलकाता में भी डीज़ल काफ़ी महँगा हो गया है। वहीं हाल नोएडा और लखनऊ का भी है। भारत में डीज़ल की कीमत का सीधा असर महँगाई पर होता है। डीज़ल की खपत सबसे अधिक एग्रीकल्चर, ट्रांसपोर्ट, बिजली जैसे ज़रूरी सेक्टर में होती है। डीजल की कीमत बढ़ाने का चौतरफा असर होता है। सबसे अधिक असर खेती पर पड़ता है। कुल डीज़ल का 17 फ़ीसदी खेती के लिए इस्तेमाल होता है। डीज़ल की कीमत बढ़ जाने की बड़ी मार किसानों पर पड़ती है। देश में बड़े पैमाने पर सिंचाई और जुताई और कटाई का काम डीज़ल इंजन से और ट्रैक्टर्ज़ से होता है। किसानों की फसल उत्पादन पर लागत पहले ही काफी ज्यादा है और अब यह लागत और बढ़ रही है। बस ट्रक और मालगाड़ी डीज़ल पर निर्भर हैं। 43 फीसदी डीज़ल कमर्शियल गाड़ियों में इस्तेमाल होता है। ट्रांसपोर्ट की लागत बढ़ रही है। ट्रकों के भाड़े और ट्रेनों के माल भाड़े बढ़ रहे हैं। इसका नतीजा ये है कि अनाज फल और सब्ज़ीयों के दाम बढ़ेंगे। 8 फ़ीसदी डीज़ल कारखानों, कॉरपोरेट सेक्टर में डीज़ल से चलने वाले बड़े-बड़े जनरेटर पर इस्तेमाल होते हैं। डीज़ल की कीमत बढ़ते जाने से इनका खर्च भी बढ़ता जा रहा है। कम्पनियां बढ़ी हुई लागत कहां से वसूलेंगी। ज़ाहिर सी बात है जनता से ही ये पैसा वसूला जाएगा। पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमत में कोई अंतर नहीं होगा तो डीज़ल कार कोई क्यों खरीदेगा। लिहाज़ा डीज़ल कारों का मार्केट चौपट होने की आशंका है। इस समय 2014 की तुलना में या 2018 की तुलना में कच्चे तेल का भाव आधे से भी कम है। साल 2018 में ही कच्चा तेल 80 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर था। इस साल जनवरी के 70 बैरल प्रति डॉलर से ये क़ीमत अप्रैल में 16.19 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई। लेकिन सरकार हमेशा क़ीमत बढ़ाती रही है। चाहे क्रूड ऑयल की क़ीमत कम हो या उसमें बढ़त हुई हो। जिस क़ीमत पर हम तेल ख़रीदते हैं, उसमें 50 फ़ीसदी से अधिक टैक्स होता है। एक्साइज़ ड्यूटी केंद्र सरकार के पास जाती है और वैट राज्य सरकारें लेती हैं। दोनों ही टैक्स, सरकारों के लिए रेवेन्यू का बड़ा ज़रिया है। जब कच्चे तेल के दाम कम हैं। पाकिस्तान नेपाल और बांग्लादेश में भारत की तुलना में पेट्रोल और डीज़ल सस्ते हैं। लेकिन भारत सरकार टैक्स का भारी बोझ जनता पर डाल रही है। लोकतंत्र में जनता सबसे ऊपर होती है। वो जैसी चाहे सरकार चुनती है, फिर बदलती है। जब जनता को ये अधिकार है कि वो सरकार चुनती है तो सरकार के फ़ैसले का बोझ भी तो उसी को उठाना पड़ेगा ना !
दिल्ली में डीज़ल की कीमत पेट्रोल के पार चली गई है। बाक़ी देश भर में पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमत लगभग बराबर है, दोनों के रेट में सिर्फ कुछ पैसों का अंतर है। दिल्ली में डीज़ल सबसे महँगा है। उसके बाद मुंबई, चेन्नई, पटना और बंगलुरु का नम्बर आता है। कोलकाता में भी डीज़ल काफ़ी महँगा हो गया है। वहीं हाल नोएडा और लखनऊ का भी है। भारत में डीज़ल की कीमत का सीधा असर महँगाई पर होता है। डीज़ल की खपत सबसे अधिक एग्रीकल्चर, ट्रांसपोर्ट, बिजली जैसे ज़रूरी सेक्टर में होती है। डीजल की कीमत बढ़ाने का चौतरफा असर होता है। सबसे अधिक असर खेती पर पड़ता है। कुल डीज़ल का 17 फ़ीसदी खेती के लिए इस्तेमाल होता है। डीज़ल की कीमत बढ़ जाने की बड़ी मार किसानों पर पड़ती है। देश में बड़े पैमाने पर सिंचाई और जुताई और कटाई का काम डीज़ल इंजन से और ट्रैक्टर्ज़ से होता है। किसानों की फसल उत्पादन पर लागत पहले ही काफी ज्यादा है और अब यह लागत और बढ़ रही है। बस ट्रक और मालगाड़ी डीज़ल पर निर्भर हैं। 43 फीसदी डीज़ल कमर्शियल गाड़ियों में इस्तेमाल होता है। ट्रांसपोर्ट की लागत बढ़ रही है। ट्रकों के भाड़े और ट्रेनों के माल भाड़े बढ़ रहे हैं। इसका नतीजा ये है कि अनाज फल और सब्ज़ीयों के दाम बढ़ेंगे। 8 फ़ीसदी डीज़ल कारखानों, कॉरपोरेट सेक्टर में डीज़ल से चलने वाले बड़े-बड़े जनरेटर पर इस्तेमाल होते हैं। डीज़ल की कीमत बढ़ते जाने से इनका खर्च भी बढ़ता जा रहा है। कम्पनियां बढ़ी हुई लागत कहां से वसूलेंगी। ज़ाहिर सी बात है जनता से ही ये पैसा वसूला जाएगा। पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमत में कोई अंतर नहीं होगा तो डीज़ल कार कोई क्यों खरीदेगा। लिहाज़ा डीज़ल कारों का मार्केट चौपट होने की आशंका है। इस समय 2014 की तुलना में या 2018 की तुलना में कच्चे तेल का भाव आधे से भी कम है। साल 2018 में ही कच्चा तेल 80 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर था। इस साल जनवरी के 70 बैरल प्रति डॉलर से ये क़ीमत अप्रैल में 16.19 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई। लेकिन सरकार हमेशा क़ीमत बढ़ाती रही है। चाहे क्रूड ऑयल की क़ीमत कम हो या उसमें बढ़त हुई हो। जिस क़ीमत पर हम तेल ख़रीदते हैं, उसमें 50 फ़ीसदी से अधिक टैक्स होता है। एक्साइज़ ड्यूटी केंद्र सरकार के पास जाती है और वैट राज्य सरकारें लेती हैं। दोनों ही टैक्स, सरकारों के लिए रेवेन्यू का बड़ा ज़रिया है। जब कच्चे तेल के दाम कम हैं। पाकिस्तान नेपाल और बांग्लादेश में भारत की तुलना में पेट्रोल और डीज़ल सस्ते हैं। लेकिन भारत सरकार टैक्स का भारी बोझ जनता पर डाल रही है। लोकतंत्र में जनता सबसे ऊपर होती है। वो जैसी चाहे सरकार चुनती है, फिर बदलती है। जब जनता को ये अधिकार है कि वो सरकार चुनती है तो सरकार के फ़ैसले का बोझ भी तो उसी को उठाना पड़ेगा ना !
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