12 दिसंबर 1911 को सजे किंग जॉर्ज पंचम के दरबार की कहानी, जब दिल्ली बनी राजधानी
1857 में चमकी उनके पुरखों की तलवारें हमेशा के लिए लिए म्यान में चली गयी थीं। सम्राट ने हिंदुस्तानी शासकों को राज्यभक्ति का इनाम दिया। उन्हें मेडल और उपाधियां बाँटीं।

दिल्ली के बुराड़ी में कोरोनेशन पार्क की चर्चा शायद ही कभी होती हो, लेकिन यहाँ खड़ी तमाम अंग्रेज़ों की प्रतिमाएँ 12 दिसंबर 1911 के उस जश्न की याद दिलाती हैं जब दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया था। कलकत्ता से दिल्ली राजधानी लाये जाने का ऐलान करने के लिए ख़ुद इंग्लैंड के किंग जॉर्ज पंचम और महारानी मैरी मौजूद थीं। यूँ तो 1877 और 1903 में भी दिल्ली में दरबार हुआ था, लेकिन ये इग्लैंड के सम्राट किंग जार्ज पंचम और महारानी मैरी के राज्याभिषेक का उत्सव भी था जिसे दिल्ली को राजधानी बनाने के ऐलान ने बेहद ख़ास बना दिया था।
ब्रिटिश सम्राट के इस भव्य दरबार में हिंदुस्तानी रियासतदारों के लालच के घोड़ों और ख्वाहिशों के ऊँटों ने कोर्निश करने की होड़ में सारी हदें तोड़ दी थीं। 1857 में चमकी उनके पुरखों की तलवारें हमेशा के लिए लिए म्यान में चली गयी थीं। सम्राट ने हिंदुस्तानी शासकों को राज्यभक्ति का इनाम दिया। उन्हें मेडल और उपाधियां बाँटीं।
राज्याभिषेक समारोह के पहले सम्राट का काफिला पूरी शान से दिल्ली की सड़कों पर घूमा। बाद में सम्राट ने लालकिले के झरोखे पर पहुंचकर लोगों को दर्शन दिया। 1857 के बाद बेनूर हो चुकी दिल्ली की किस्मत ने, जिसे रिसायत-ए-पंजाब का महज जिला बनाकर छोड़ दिया गया था, अचानक पलटा खाया था। 54 साल बाद राजधानी होने का गौरव फिर उसके माथे पर सज गया था। लेकिन ये फैसला यूं हीं नहीं हुआ था। दरअसल,1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन करके बँटवारे का जो जहर बोया था, वो उनके लिए ही खतरनाक साबित हो रहा था। स्वदेशी आंदोलन ने इस कदर जोर पकड़ा कि कलकत्ता में अंग्रेजों की चूलें हिल गई थीं। एक तरफ रविंद्रनाथ टैगौर जैसी शख्सियत सड़क पर थी तो दूसरी तरफ क्रांतिकारी नौजवानों ने मोर्चा संभाल लिया था। अंग्रेज अधिकारियों के काफिलों पर बम फेंके जा रहे थे। अंग्रेज काफी घबरा गए थे। यही वजह है कि किंग जॉर्ज पंचम ने दिल्ली को राजधानी बनाने के एलान के साथ बंगाल का विभाजन रद्द करने की घोषणा भी की। इसे एक वरदान की तरह पेश किया गया पर हक़ीक़त में में यह जान बचाने की जुगत थी। बहरहाल, जिस दिल्ली को 1857 में अंग्रेज खुद उजाड़ गए थे, उसमें राजधानी की अंग्रेजी शान लाना आसान न था। लिहाजा राजधानी बतौर एक नया शहर बनाने का एलान हुआ। जहाँ राज्याभिषेक समारोह हुआ, वहीं नए शहर के बुनियाद का पत्थर भी रखा गया। लेकिन बाद में पता चला कि वो इलाका निचला और दलदली है। यमुना का पानी शहर के भावी राजधानी के लिए मुसीबत बन सकता था। लिहाजा रातो-रात बुनियाद का पत्थर रायसीना पहाड़ियों के पास एक विशाल बंजर मैदान में लाया गया। यहाँ ‘नई दिल्ली’ बसाने की जिम्मादारी दी गई प्रसिद्ध वास्तुकार एडविन लुटियन को। उन्होंने एक बिलकुल नए अंदाज का शहर बनाया। चौड़ी और समकोण पर काटती सड़कें, बड़े-बड़े बंगले.. वायसराय के रहने के लिए साम्राज्य की शान के मुताबिक रायसीना की पहाड़ी पर एक महल.. साथ में बड़े-बड़े दफ्तर...नया एसेंबली भवन यानी संसद, पहले विश्वयुद्द में शहीद सैनिकों की याद में इंडिया गेट..सफेद खंभों से सजा दो पर्तों वाला घोड़े की नाल के आकार का बाजार यानी कनॉट प्लेस....इस नए शहर के पूरी तरह बनने में लगभग 20 बरस लग गए। 1931 में इस शहर का उद्घाटन हुआ। पर यहां तमाम ऐसी सड़कें थीं, जहां हिंदुस्तानियों के चलने पर पाबंदी थी। बहरहाल, दिल्ली के इस आठवें शहर के लिए चुने गए हर पत्थर के साथ आसमान का रंग तेजी से बदलने लगा था। दिल्ली दरबार में किंग जॉर्ज पंचम ने अपने सिर पर जो भारी मुकुट पहना, उससे उनके सिर में दर्द हो गया था। धीरे-धीरे ये दर्द पूरे साम्राज्य के सिरदर्द में तब्दील हो गया। क्योंकि 1911 में दिल्ली ब्रिटिश भारत की ही नहीं, उनके सपनों की राजधानी भी बन गई जो भारत से ब्रिटिश राज उखाड़ फेंकना चाहते थे। बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से जो चिंगारी भड़की थी, वो धीरे-धीरे शोला बन रही थी और इस आग के निशाने पर थी दिल्ली। 15 अगस्त 1947 को यह लड़ाई आज़ादी के ऐलान के साथ अपने अंजाम तक पहुँची। नई दिल्ली की इमरातों से ब्रिटिश यूनियन जैक उतरा और तिरंगा फहराने लगे। एक शहर जो ग़ुलामी को व्यवस्थित रूप देने के लिए बनाया गया था, आज़ादी की नई कहानी लिखने में मशगूल हो गया।
राज्याभिषेक समारोह के पहले सम्राट का काफिला पूरी शान से दिल्ली की सड़कों पर घूमा। बाद में सम्राट ने लालकिले के झरोखे पर पहुंचकर लोगों को दर्शन दिया। 1857 के बाद बेनूर हो चुकी दिल्ली की किस्मत ने, जिसे रिसायत-ए-पंजाब का महज जिला बनाकर छोड़ दिया गया था, अचानक पलटा खाया था। 54 साल बाद राजधानी होने का गौरव फिर उसके माथे पर सज गया था। लेकिन ये फैसला यूं हीं नहीं हुआ था। दरअसल,1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन करके बँटवारे का जो जहर बोया था, वो उनके लिए ही खतरनाक साबित हो रहा था। स्वदेशी आंदोलन ने इस कदर जोर पकड़ा कि कलकत्ता में अंग्रेजों की चूलें हिल गई थीं। एक तरफ रविंद्रनाथ टैगौर जैसी शख्सियत सड़क पर थी तो दूसरी तरफ क्रांतिकारी नौजवानों ने मोर्चा संभाल लिया था। अंग्रेज अधिकारियों के काफिलों पर बम फेंके जा रहे थे। अंग्रेज काफी घबरा गए थे। यही वजह है कि किंग जॉर्ज पंचम ने दिल्ली को राजधानी बनाने के एलान के साथ बंगाल का विभाजन रद्द करने की घोषणा भी की। इसे एक वरदान की तरह पेश किया गया पर हक़ीक़त में में यह जान बचाने की जुगत थी। बहरहाल, जिस दिल्ली को 1857 में अंग्रेज खुद उजाड़ गए थे, उसमें राजधानी की अंग्रेजी शान लाना आसान न था। लिहाजा राजधानी बतौर एक नया शहर बनाने का एलान हुआ। जहाँ राज्याभिषेक समारोह हुआ, वहीं नए शहर के बुनियाद का पत्थर भी रखा गया। लेकिन बाद में पता चला कि वो इलाका निचला और दलदली है। यमुना का पानी शहर के भावी राजधानी के लिए मुसीबत बन सकता था। लिहाजा रातो-रात बुनियाद का पत्थर रायसीना पहाड़ियों के पास एक विशाल बंजर मैदान में लाया गया। यहाँ ‘नई दिल्ली’ बसाने की जिम्मादारी दी गई प्रसिद्ध वास्तुकार एडविन लुटियन को। उन्होंने एक बिलकुल नए अंदाज का शहर बनाया। चौड़ी और समकोण पर काटती सड़कें, बड़े-बड़े बंगले.. वायसराय के रहने के लिए साम्राज्य की शान के मुताबिक रायसीना की पहाड़ी पर एक महल.. साथ में बड़े-बड़े दफ्तर...नया एसेंबली भवन यानी संसद, पहले विश्वयुद्द में शहीद सैनिकों की याद में इंडिया गेट..सफेद खंभों से सजा दो पर्तों वाला घोड़े की नाल के आकार का बाजार यानी कनॉट प्लेस....इस नए शहर के पूरी तरह बनने में लगभग 20 बरस लग गए। 1931 में इस शहर का उद्घाटन हुआ। पर यहां तमाम ऐसी सड़कें थीं, जहां हिंदुस्तानियों के चलने पर पाबंदी थी। बहरहाल, दिल्ली के इस आठवें शहर के लिए चुने गए हर पत्थर के साथ आसमान का रंग तेजी से बदलने लगा था। दिल्ली दरबार में किंग जॉर्ज पंचम ने अपने सिर पर जो भारी मुकुट पहना, उससे उनके सिर में दर्द हो गया था। धीरे-धीरे ये दर्द पूरे साम्राज्य के सिरदर्द में तब्दील हो गया। क्योंकि 1911 में दिल्ली ब्रिटिश भारत की ही नहीं, उनके सपनों की राजधानी भी बन गई जो भारत से ब्रिटिश राज उखाड़ फेंकना चाहते थे। बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से जो चिंगारी भड़की थी, वो धीरे-धीरे शोला बन रही थी और इस आग के निशाने पर थी दिल्ली। 15 अगस्त 1947 को यह लड़ाई आज़ादी के ऐलान के साथ अपने अंजाम तक पहुँची। नई दिल्ली की इमरातों से ब्रिटिश यूनियन जैक उतरा और तिरंगा फहराने लगे। एक शहर जो ग़ुलामी को व्यवस्थित रूप देने के लिए बनाया गया था, आज़ादी की नई कहानी लिखने में मशगूल हो गया।
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