जम्मू-कश्मीर से 'अनुच्छेद 370' हटने से अल्पसंख्यकों के अधिकार प्रभावित- संयुक्त राष्ट्र

जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य के दर्ज़े को समाप्त करने के फैसले को को संयुक्त राष्ट्र के दो स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने खतरे की घंटी बताया है। यूएन के अल्पसंख्यक मुद्दों के विशेषज्ञ फर्नांड डे वर्नेस और धर्म की स्वतंत्रता के विशेषज्ञ अहमद शहीद ने संयुक्त बयान में कहा है की धारा 370 ख़त्म होने से भारत राजनीतिक और अन्य गतिविधियों में अल्पसंख्यकों की भागीदारी को सीमित कर रहा है।
उन्होंने कहा - केंद्र सरकार के इस आदेश से हुए ऑटोनोमी और लोकतंत्र के नुकसान से पता चलता है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों की अब अपनी सरकार नहीं है और वे अल्पसंख्यक के तौर पर अपने अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इस क्षेत्र में कानून बनाने या संशोधन करने की शक्ति खो चुके हैं।
कश्मीर भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य था, भारत ने आज़ादी के समय उन्हें अपने लोगों की जातीय, भाषाई और धार्मिक पहचान कायम रखने के लिए आंशिक स्वायत्तता प्रदान की थी । इसके लिए बाकायदा संविधान में अनुच्छेद 370 और आर्टिकल 35A को जोड़ा गया। लेकिन, 5 अगस्त 2019 को, सरकार ने इस विशेष स्थिति को रद्द कर दिया और मई 2020 में, तथाकथित डोमिसाइल नियम पारित किये, जो राज्य के बाहर के लोगो को वहाँ बसने का मौका देता है। पिछला कानून कश्मीरी मुस्लिम, पंडित, डोगरी, गुर्जर, पहाड़ी, सिख, लद्दाखी और अन्य स्थापित अल्पसंख्यकों को ही राज्य में संपत्ति खरीदने और राज्य की नौकरियों का अधिकार प्रदान करता था। 'कानूनों में हुए बदलाव जम्मू-कश्मीर के बाहर के लोगो को क्षेत्र में बसने, क्षेत्र की जनसांख्यिकी में बदलाव करने और अल्पसंख्यकों के मानव अधिकारों को कमजोर करने की क्षमता रखते है", विशेषज्ञों ने कहा। ऐसा नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार कश्मीर पर चिंता जताई हो। तक़रीबन 6 महीने पहले यूएन भी मानवाधिकार विशेषज्ञों ने भारत सरकार से प्रदेश में मानवाधिकार की चिंताजनक स्थिति पर ध्यान देने और तत्काल कार्रवाई की मांग की थी । विशेषज्ञों ने कहा, ‘प्रदेश में तत्काल कार्रवाई की ज़रूरत है। अगर भारत स्थिति को हल करने के लिए तत्काल कोई क़दम नहीं उठाता है तो अंतरराष्ट्रीय संगठनों को क़दम उठाना चाहिए। विशेषज्ञों ने कहा कि 'भारत मानव अधिकारों के उल्लंघन के पुराने और हालिया मामलों की जांच करे और अपने दायित्व को पूरा करे ताकि आने वाले समय में मानवाधिकार उल्लंघन को रोका जा सके।’
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कश्मीर भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य था, भारत ने आज़ादी के समय उन्हें अपने लोगों की जातीय, भाषाई और धार्मिक पहचान कायम रखने के लिए आंशिक स्वायत्तता प्रदान की थी । इसके लिए बाकायदा संविधान में अनुच्छेद 370 और आर्टिकल 35A को जोड़ा गया। लेकिन, 5 अगस्त 2019 को, सरकार ने इस विशेष स्थिति को रद्द कर दिया और मई 2020 में, तथाकथित डोमिसाइल नियम पारित किये, जो राज्य के बाहर के लोगो को वहाँ बसने का मौका देता है। पिछला कानून कश्मीरी मुस्लिम, पंडित, डोगरी, गुर्जर, पहाड़ी, सिख, लद्दाखी और अन्य स्थापित अल्पसंख्यकों को ही राज्य में संपत्ति खरीदने और राज्य की नौकरियों का अधिकार प्रदान करता था। 'कानूनों में हुए बदलाव जम्मू-कश्मीर के बाहर के लोगो को क्षेत्र में बसने, क्षेत्र की जनसांख्यिकी में बदलाव करने और अल्पसंख्यकों के मानव अधिकारों को कमजोर करने की क्षमता रखते है", विशेषज्ञों ने कहा। ऐसा नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार कश्मीर पर चिंता जताई हो। तक़रीबन 6 महीने पहले यूएन भी मानवाधिकार विशेषज्ञों ने भारत सरकार से प्रदेश में मानवाधिकार की चिंताजनक स्थिति पर ध्यान देने और तत्काल कार्रवाई की मांग की थी । विशेषज्ञों ने कहा, ‘प्रदेश में तत्काल कार्रवाई की ज़रूरत है। अगर भारत स्थिति को हल करने के लिए तत्काल कोई क़दम नहीं उठाता है तो अंतरराष्ट्रीय संगठनों को क़दम उठाना चाहिए। विशेषज्ञों ने कहा कि 'भारत मानव अधिकारों के उल्लंघन के पुराने और हालिया मामलों की जांच करे और अपने दायित्व को पूरा करे ताकि आने वाले समय में मानवाधिकार उल्लंघन को रोका जा सके।’
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