सरकार के पास ग़रीबी का डेटा नहीं, फिर 80 करोड़ की संख्या कहां से आई ?

केन्द्र सरकार ने घोषणा की है कि वो कोरोना महामारी की दूसरी लहर में 80 करोड़ भारतीयों को अगस्त महीने तक अनाज उपलब्घ कराएगी। यह साल 2013 में यूपीए सरकार द्वारा अधिनियमित फूड सिक्योरिटी अधिनियम के तहत चिन्हित ग़रीबों की समान संख्या है। अब यह सवाल ज़ाहिर है कि क्या साल 2014 में एनडीए की सरकार बनने के बाद देश में ग़रीबी में कोई कमी नहीं आई ?
Read Here Full Report- ‘Poverty’ Of Poverty Data in India
ग़ौर करने वाली बात यह है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से केन्द्र ने ग़रीबी का कोई डेटा ही जारी नहीं किया है। फिर मोदी सरकार इस 80 करोड़ के आंकड़े तक कैसे पहुंच गई ? सरकार ने साल 2017-18 में हाउसहोल्ड सर्वे के डेटा की प्रमाणिकता पर सवाल उठाते हुए रिपोर्ट जारी करने से इनकार कर दिया था। विश्व बैंक ने अपनी नई रिपोर्ट 'पॉवर्टी एंड शेयर्ड प्रॉस्पेरिटी- रिवर्सल ऑफ फॉर्च्यून' में विशेष रूप से भारत के गरीबी डेटा की अनुपलब्धता के बारे में चिंता जताई है। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि - "गरीबी विरोधी नीतियों के डिजाइन और निगरानी के लिए समय पर, गुणवत्ता-सुनिश्चित और पारदर्शी डेटा का कोई विकल्प नहीं है।" डेटा की गुणवत्ता पर चिंताओं का हवाला देते हुए भारत सरकार ने राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा 75वें राउंड में आयोजित 2017-18 के ऑल इंडिया हाउसहोल्ड कंज्युमर सर्वे एक्सपेंडिचर सर्वे जारी नहीं करने का फैसला किया था। इस फैसले से हाल के वर्षों में देश, दक्षिण एशिया और दुनिया में ग़रीबी को समझने में अंतर देखी गई है। भारत सरकार के पास जो डेटा अभी मौजूद है वो साल 2011-12 के दौरान नेश्नल सैंपल सर्वे द्वारा आयोजित 68वें राउंड के सर्वे के हैं, जिसमें ज़्यादा जानकारी नहीं दी गई थी और यह पूर्ण उपभोग मॉड्यूल पर आधारित नहीं है। इनके अलावा दूसरा दृष्टिकोण सर्वे-टू-सर्वे तकनीक पर आधारित होता है, जैसा कि साल 2018 में नेश्नल सैंपल सर्वे के 75वें राउंड के तहत गरीबी और साझा समृद्धि रिपोर्ट में समान, स्वास्थ्य के लिए सामाजिक उपभोग सर्वेक्षण में इस्तेमाल किए गए। इसके तहत साल 2017 में लोअर नेश्नल पोवर्टी 9.9 फीसदी आंकी गई थी जिसमें 95 फीसदी कॉन्फिडेंस इंटरवल 8.1 और 11.3 के बीच है। भारत में इसका मतलब यह है कि ग़रीबों की संख्या 109 मिलियन और 152 मिलियन के बीच है। जबकि यह दर दक्षिण एशिया में 7.7 फीसदी और 10.0 फीसदी के बीच है, यानी 137 मिलियन और 180 मिलियन लोग ग़रीब हैं। अब सवाल है कि नई रिपोर्ट जारी नहीं करने से फर्क क्या पड़ सकता है। अगर सरकार नए सर्वे नहीं करती है और नए आंकड़े जारी नहीं करती है तो लोगों को सरकारी वेलफेयर स्कीम का लाभ कैसे दिया जा सकता है। कितने लोगों को मदद की ज़रूरत है यह कैसे पता चलेगा। मसलन 2011 से 2017 के बीच देश की अर्थव्यवस्था में काफी संरचनात्मक बदलाव आए हैं। इतना ही नहीं महामारी के बाद से कई रिपोर्ट में यह दावे किए गए हैं कि देश और दुनिया में ग़रीबी और भी ज़्यादा बढ़ी है। ऐसे में ज़ाहिर है कि देश में ग़रीबी की संख्या और भी ज़्यादा बढ़ी है लेकिन डेटा नहीं होने की वजह से सरकार उन तक मदद कैसे पहुंचा रही है ? यह सवाल एक चिंता का विषय है।
ग़ौर करने वाली बात यह है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से केन्द्र ने ग़रीबी का कोई डेटा ही जारी नहीं किया है। फिर मोदी सरकार इस 80 करोड़ के आंकड़े तक कैसे पहुंच गई ? सरकार ने साल 2017-18 में हाउसहोल्ड सर्वे के डेटा की प्रमाणिकता पर सवाल उठाते हुए रिपोर्ट जारी करने से इनकार कर दिया था। विश्व बैंक ने अपनी नई रिपोर्ट 'पॉवर्टी एंड शेयर्ड प्रॉस्पेरिटी- रिवर्सल ऑफ फॉर्च्यून' में विशेष रूप से भारत के गरीबी डेटा की अनुपलब्धता के बारे में चिंता जताई है। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि - "गरीबी विरोधी नीतियों के डिजाइन और निगरानी के लिए समय पर, गुणवत्ता-सुनिश्चित और पारदर्शी डेटा का कोई विकल्प नहीं है।" डेटा की गुणवत्ता पर चिंताओं का हवाला देते हुए भारत सरकार ने राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा 75वें राउंड में आयोजित 2017-18 के ऑल इंडिया हाउसहोल्ड कंज्युमर सर्वे एक्सपेंडिचर सर्वे जारी नहीं करने का फैसला किया था। इस फैसले से हाल के वर्षों में देश, दक्षिण एशिया और दुनिया में ग़रीबी को समझने में अंतर देखी गई है। भारत सरकार के पास जो डेटा अभी मौजूद है वो साल 2011-12 के दौरान नेश्नल सैंपल सर्वे द्वारा आयोजित 68वें राउंड के सर्वे के हैं, जिसमें ज़्यादा जानकारी नहीं दी गई थी और यह पूर्ण उपभोग मॉड्यूल पर आधारित नहीं है। इनके अलावा दूसरा दृष्टिकोण सर्वे-टू-सर्वे तकनीक पर आधारित होता है, जैसा कि साल 2018 में नेश्नल सैंपल सर्वे के 75वें राउंड के तहत गरीबी और साझा समृद्धि रिपोर्ट में समान, स्वास्थ्य के लिए सामाजिक उपभोग सर्वेक्षण में इस्तेमाल किए गए। इसके तहत साल 2017 में लोअर नेश्नल पोवर्टी 9.9 फीसदी आंकी गई थी जिसमें 95 फीसदी कॉन्फिडेंस इंटरवल 8.1 और 11.3 के बीच है। भारत में इसका मतलब यह है कि ग़रीबों की संख्या 109 मिलियन और 152 मिलियन के बीच है। जबकि यह दर दक्षिण एशिया में 7.7 फीसदी और 10.0 फीसदी के बीच है, यानी 137 मिलियन और 180 मिलियन लोग ग़रीब हैं। अब सवाल है कि नई रिपोर्ट जारी नहीं करने से फर्क क्या पड़ सकता है। अगर सरकार नए सर्वे नहीं करती है और नए आंकड़े जारी नहीं करती है तो लोगों को सरकारी वेलफेयर स्कीम का लाभ कैसे दिया जा सकता है। कितने लोगों को मदद की ज़रूरत है यह कैसे पता चलेगा। मसलन 2011 से 2017 के बीच देश की अर्थव्यवस्था में काफी संरचनात्मक बदलाव आए हैं। इतना ही नहीं महामारी के बाद से कई रिपोर्ट में यह दावे किए गए हैं कि देश और दुनिया में ग़रीबी और भी ज़्यादा बढ़ी है। ऐसे में ज़ाहिर है कि देश में ग़रीबी की संख्या और भी ज़्यादा बढ़ी है लेकिन डेटा नहीं होने की वजह से सरकार उन तक मदद कैसे पहुंचा रही है ? यह सवाल एक चिंता का विषय है।
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