सरकार किसानों की माँग मानने के लिए किन कारणों से तैयार नहीं!
कृषि क़ानूनों को रद्द करने का मतलब वैधानिक, प्रशासनिक और नैतिक आधार पर मोदी सरकार की साख को गिराना है क्योंकि इन्हें संसद से पूरी प्रक्रिया का पालन करते हुए बहुमत के आधार पर पारित किया गया था।

कई महीने से जारी किसान आंदोलन अब 2021 में प्रवेश कर चुका है और दिल्ली की सरहदों पर डटे किसानों का हुजुम पीछे हटने का कोई संकेत नहीं दे रहा है। कई दौर की वार्ता के बावजूद सरकार और किसान, दोनों ही नरम पड़ने को तैयार नहीं हैं। किसानों की दो अहम माँगें हैं। पहली, तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द किया जाये और दूसरी, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को क़ानूनी दर्जा दिया जाये, यानी सरकार की ओर से घोषित कीमत पर किसानों की उपज की ख़रीद सुनिश्चित हो। अभी जो हालात हैं, उनमें केंद्र सरकार इन दोनों माँगों पर सहमत नहीं हो सकती।
कृषि क़ानूनों को रद्द करने का मतलब वैधानिक, प्रशासनिक और नैतिक आधार पर मोदी सरकार की साख को गिराना है क्योंकि इन्हें संसद से पूरी प्रक्रिया का पालन करते हुए बहुमत के आधार पर पारित किया गया था। यही नहीं, पूरी सरकारी मशीनरी ने दुनिया भर में इसे बड़े कृषि सुधारों के रूप में प्रचारित किया है जिनका अरसे से इंतज़ार किया जा रहा था। क़ानूनों को रद्द करना यह स्वीकार करना होगा कि सरकार को कृषि अर्थव्यवस्था की समझ नहीं है जिस पर देश की आधी से ज़्यादा आबादी आज भी निर्भर है और जिसका जीडीपी में 18 फ़ीसदी का योगदान है। इससे सरकार की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख कमज़ोर होगी और चुनावी लिहाज़ से भी यह क़दम नुकसानदेह हो सकता है।
आंदोलनकारी किसान संगठन सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि एमएसपी का क़ानूनी दर्जा मिलने पर वे आंदोलन ख़त्म कर देंगे। यह एक तरह से उपनी उपज की ख़रीद और उचित मूल्य को लेकर सुरक्षातंत्र की माँग है। अभी तक एमएसपी बिना किसी क़ानूनी अनिवार्यता के सरकार की नीति के तहत घोषित होती है। अगर सरकार इसे वैधानिक दर्जा देती है तो फिर उसे जिस स्तर के वित्तीय संसाधन की ज़रूरत पड़ेगी, वह उसके पास है ही नहीं। बेंगलुरु स्थिति इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज का एक अध्ययन बताता है कि सरकार का एमएसपी बिल 7.7 लाख करोड़ से ज़्यादा हो जाता अगर उसे 2019-20 में हुई सारी अनाज और तिलहन उपज ख़रीदनी पड़ती। इस समयावधि में एमएसपी ख़रीद का बजट महज़ 1.51 करोड़ तय हुआ था जिसमें भी सरकार ने ख़रीद 1.14 करोड़ रुपये की ही की थी। 2020-21 में यह बजट 77000 करोड़ रुपये तय हुआ था जो कुल ज़रूरत का महज़ 10 फ़ीसदी बैठता है। साफ़ है कि एमएसपी को लेकर किसानों की माँग नहीं मानी जा सकती, ख़ासतौर पर जब उपज ख़रीद का ज़िम्मेदार भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) मार्च 2020 तक 3.5 लाख करोड़ के क़र्ज़ में डूब चुका था और कोरोना काल ने उसकी हालत और ख़राब कर दी है। साफ है कि एमएसपी का मसला सरकार के बस से बाहर होता जा रहा है। यह संयोग नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी या उनके किसी कैबिनेट मंत्री ने किसानों के मौजूदा आंदोलन के बीच एक बार भी एमएसपी को क़ानूनी दर्जा देने की बात नहीं की। भारतीय परिदृश्य में कृषि योग्य ज़मीन का बढ़ता संकट दूसरी बड़ी समस्या है। 1971 में देश की क़रीब 80 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती थी और पूरी तरह कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर थी जिसका जीडीपी में 42 फ़ीसदी योगदान था। अब यह योगदान महज़ 18 फ़ीसदी रह गया है जबकि 68 फ़ीसदी आबादी इस पर निर्भर है। पचास साल या क़रीब दो पीढ़ियाँ गुज़रने के साथ देश में एक हेक्टेयर से कम आकार वाली जोतों की तादाद 3 करोड़ 60 लाख से बढ़कर 9 करोड़ 90 लाख हो चुकी है। ऐसी स्थिति में सीमांत किसानों के लिए औसत पाँच लोगों के परिवार का पालन-पोषण संभव नहीं रह गया है। वे कभी खेत मज़दूर के रूप में काम करते हैं, कभी पशुपालन में जुटते हैं या परिवार के सदस्य बड़े शहरों में पलानय कर जाते हैं ताकि परिवार की आय बढ़ सके। ऐसे परिवारों की तादाद 9 करोड़ 90 लाख हो चुकी है। यह कुल किसान परिवारों का 78 फ़ीसदी और भारत की कुल आबादी का 40 फ़ीसदी है। तमाम एक्सपर्ट टीवी टॉक शो और अख़बारों के ज़रिये किसान आंदोलन को लेकर न जाने क्या-क्या लिख-बोल रहे हैं लेकिन भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था के इन दो गहरे संकटों पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। पिछली कई सरकारों ने भी जानबूझकर इन दोनों मुद्दों की उपेक्षा की है।
आंदोलनकारी किसान संगठन सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि एमएसपी का क़ानूनी दर्जा मिलने पर वे आंदोलन ख़त्म कर देंगे। यह एक तरह से उपनी उपज की ख़रीद और उचित मूल्य को लेकर सुरक्षातंत्र की माँग है। अभी तक एमएसपी बिना किसी क़ानूनी अनिवार्यता के सरकार की नीति के तहत घोषित होती है। अगर सरकार इसे वैधानिक दर्जा देती है तो फिर उसे जिस स्तर के वित्तीय संसाधन की ज़रूरत पड़ेगी, वह उसके पास है ही नहीं। बेंगलुरु स्थिति इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज का एक अध्ययन बताता है कि सरकार का एमएसपी बिल 7.7 लाख करोड़ से ज़्यादा हो जाता अगर उसे 2019-20 में हुई सारी अनाज और तिलहन उपज ख़रीदनी पड़ती। इस समयावधि में एमएसपी ख़रीद का बजट महज़ 1.51 करोड़ तय हुआ था जिसमें भी सरकार ने ख़रीद 1.14 करोड़ रुपये की ही की थी। 2020-21 में यह बजट 77000 करोड़ रुपये तय हुआ था जो कुल ज़रूरत का महज़ 10 फ़ीसदी बैठता है। साफ़ है कि एमएसपी को लेकर किसानों की माँग नहीं मानी जा सकती, ख़ासतौर पर जब उपज ख़रीद का ज़िम्मेदार भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) मार्च 2020 तक 3.5 लाख करोड़ के क़र्ज़ में डूब चुका था और कोरोना काल ने उसकी हालत और ख़राब कर दी है। साफ है कि एमएसपी का मसला सरकार के बस से बाहर होता जा रहा है। यह संयोग नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी या उनके किसी कैबिनेट मंत्री ने किसानों के मौजूदा आंदोलन के बीच एक बार भी एमएसपी को क़ानूनी दर्जा देने की बात नहीं की। भारतीय परिदृश्य में कृषि योग्य ज़मीन का बढ़ता संकट दूसरी बड़ी समस्या है। 1971 में देश की क़रीब 80 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती थी और पूरी तरह कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर थी जिसका जीडीपी में 42 फ़ीसदी योगदान था। अब यह योगदान महज़ 18 फ़ीसदी रह गया है जबकि 68 फ़ीसदी आबादी इस पर निर्भर है। पचास साल या क़रीब दो पीढ़ियाँ गुज़रने के साथ देश में एक हेक्टेयर से कम आकार वाली जोतों की तादाद 3 करोड़ 60 लाख से बढ़कर 9 करोड़ 90 लाख हो चुकी है। ऐसी स्थिति में सीमांत किसानों के लिए औसत पाँच लोगों के परिवार का पालन-पोषण संभव नहीं रह गया है। वे कभी खेत मज़दूर के रूप में काम करते हैं, कभी पशुपालन में जुटते हैं या परिवार के सदस्य बड़े शहरों में पलानय कर जाते हैं ताकि परिवार की आय बढ़ सके। ऐसे परिवारों की तादाद 9 करोड़ 90 लाख हो चुकी है। यह कुल किसान परिवारों का 78 फ़ीसदी और भारत की कुल आबादी का 40 फ़ीसदी है। तमाम एक्सपर्ट टीवी टॉक शो और अख़बारों के ज़रिये किसान आंदोलन को लेकर न जाने क्या-क्या लिख-बोल रहे हैं लेकिन भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था के इन दो गहरे संकटों पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। पिछली कई सरकारों ने भी जानबूझकर इन दोनों मुद्दों की उपेक्षा की है।
ताज़ा वीडियो