राहुल गाँधी के 'कॉन्ट्रेक्ट फ़ार्मिंग' से जुड़े सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने दिया पशुपालन का हवाला

मोदी सरकार का दावा है कि नये कृषि कानूनों से किसानों को बहुत फ़ायदा होगा। इसके लिए सरकार कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग के प्रावधान का ज़िक्र करती है, पर जब उसी कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग से जुड़ा सवाल राहुल गांधी ने संसद में पूछा तो सरकार का जवाब बेहद हास्यास्पद था। उसने अनाज के बजाय पशुपालन से जुड़ी स्टडी का हवाला दिया।
दरअसल, राहुल गाँधी ने लोकसभा में सरकार से सवाल पूछा था कि ‘क्या सरकार ने किसानों की आय पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के प्रभाव पर कोई अध्ययन शुरू किया है?’ इस सवाल के जवब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने जो लिखित जवाब दिया वो खुद किसी सवाल से कम नहीं।
नरेंद्र सिंह तोमर के लिखित जवाब में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से जुड़े पाँच अध्ययनों का ज़िक्र किया पर इनमें चार पशुपालन से जुड़े थे। सिर्फ एक अध्ययन का रिश्ता अनाज उत्पादन से था। इससे पता चलता है कि केंद्र सरकार के पास किसानों की आय पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के प्रभाव को सिद्ध करने के लिए कायदे के अध्ययन तक मौजूद नहीं है, फिर भी वह किसान आंदोलन के पहले दिन से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों के फ़ायदे का ढोल पीट रही है। कांट्रेक्ट फ़ार्मिंग को लेकर बीते कुछ सालों में तमाम ऐसी शिकायतें आयी हैं जिनमें कहा गया कि गुणवत्ता का सवाल उठाकर कंपनियों ने किसानों से किया गया वादा पूरा नहीं किया। या फिर बाज़ार में कम क़ीमत का हवाला देकर उसे कांट्रेक्ट के हिसाब से भुगतान नहीं मिला। नया कृषि क़ानून ऐसे विवादों को अदालत जाने से भी रोकता है जिस पर न सिर्फ़ किसान हैरान हैं, बल्कि कंपनियों और सरकार की मिलीभगत के सबूत के तौर पर भी इसे पेश करते रहे हैं। ज़ाहिर है, सरकार को इस बाबत संदेह दूर करने के लिए काफ़ी प्रयास करने होंगे। राहुल गाँधी को दिये गये जवाबन ने तो ये संदेह और बढ़ा ही दिया है।
नरेंद्र सिंह तोमर के लिखित जवाब में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से जुड़े पाँच अध्ययनों का ज़िक्र किया पर इनमें चार पशुपालन से जुड़े थे। सिर्फ एक अध्ययन का रिश्ता अनाज उत्पादन से था। इससे पता चलता है कि केंद्र सरकार के पास किसानों की आय पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के प्रभाव को सिद्ध करने के लिए कायदे के अध्ययन तक मौजूद नहीं है, फिर भी वह किसान आंदोलन के पहले दिन से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों के फ़ायदे का ढोल पीट रही है। कांट्रेक्ट फ़ार्मिंग को लेकर बीते कुछ सालों में तमाम ऐसी शिकायतें आयी हैं जिनमें कहा गया कि गुणवत्ता का सवाल उठाकर कंपनियों ने किसानों से किया गया वादा पूरा नहीं किया। या फिर बाज़ार में कम क़ीमत का हवाला देकर उसे कांट्रेक्ट के हिसाब से भुगतान नहीं मिला। नया कृषि क़ानून ऐसे विवादों को अदालत जाने से भी रोकता है जिस पर न सिर्फ़ किसान हैरान हैं, बल्कि कंपनियों और सरकार की मिलीभगत के सबूत के तौर पर भी इसे पेश करते रहे हैं। ज़ाहिर है, सरकार को इस बाबत संदेह दूर करने के लिए काफ़ी प्रयास करने होंगे। राहुल गाँधी को दिये गये जवाबन ने तो ये संदेह और बढ़ा ही दिया है।
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