किसान प्रदर्शन का एक सालः वक़्त के साथ मज़बूत होता आंदोलन

by GoNews Desk 1 year ago Views 1992

one year of farmers protest

केंद्र सरकार के लाए गए तीन विवादित 'कृषि कानूनों' के खिलाफ किसानों के प्रदर्शन को 1 साल पूरा हो गया है। 2020 में 17 सितंबर के दिन यह कानून पारित किए गए थे और इनके खिलाफ बड़ी संख्या में यूपी, पंजाब और हरियाणा के किसानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया था। आम आदमी पार्टी और शिरोमणि अकाली दल ने 17 सितंबर को बिल के खिलाफ 'काला दिवस' के रूप में मनाने का ऐलान किया था। 

केंद्र सरकार का दावा है कि यह कानून ज़रूरी 'सुधार ' हैं जो किसानों को फायदा पहुंचाने के लिए ज़रूरी थे जबकि किसानों का कहना है कि यह कानून कृषि  क्षेत्र पर 'कॉर्पोरेट कब्ज़े' को बढ़ावा देते हैं। 

केंद्र के तीन नए 'कृषि कानूनों' में किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020, आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, और मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अधिनियम पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता शामिल हैं, जिन्हें ऐसे समय लागू किया गया था जब देश में कोरोना संक्रमण की पहली लहर के हालात बेकाबू हो रहे थे और लोगों को तुरंत राहत की ज़रूरत थी। कांग्रेस पार्टी के पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने केंद्र से कानूनों को खत्म करने और किसानों की मांगों को सुनने का आह्वान किया है।

गौरतलब है कि इन 'सुधारों' की मांग किसानों ने नहीं की थी कि बल्कि किसान तो इनपुट लागत, एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य), और ऋण माफी, विलंबित भुगतान, कम बीमा कवरेज जैसे मुद्दों पर कई वक़्त पहले से विरोध जता रहे थे। 

2017 तमिलनाडु के किसान जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन करने पहुंचे थे। 2017 में मंदसौर में भी आंदोलन हुआ जिसमें 6 किसान मारे गए। ऐसा ही एक प्रदर्शन 2018 में मुंबई में भी हुआ जिसमें किसान नासिक से मुंबई 180 किमी पैदल चले थे जबकि 2018 में दिल्ली में संसद तक किसानों का मार्च हुआ। 

द हिंदू ने इस साल जून में सीएसई की रिपोर्ट 'स्टेट ऑफ एनवायरनमेंट इन फिगर्स 2021' के हवाले से लिखा कि 2017 से 2021 तक किसानों के विरोध प्रदर्शनों की संख्या पांच गुना बढ़ी है।

इसमें कहा गया है कि 2017 में 15 राज्यों में 34 विरोध प्रदर्शन हुए, जो 2021 में 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बढ़कर 165 हो गए। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि देश भर के 52% जिलों में अब भारत में जमीन के मालिक किसानों की तुलना में अधिक खेतिहर मजदूर हैं।

किसानों की मांग है कि इन कृषि कानूनों को वापस लिया जाए। इसके लिए उन्होंने कई वजह दी है। किसानों को नए कानूनों के आने से 'कॉर्पोरेट अधिग्रहण' यानि टेकओवर का खतरा सता रहा है। कृषि कानूनों ने कृषि उपज की बिक्री, भंडारण और मूल्य निर्धारण की शर्तों में ढील दी है। 

किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020 को लेकर ऐसे दावे किए गए हैं कि इससे राज्य-नियंत्रित बाजार और मंडियां अंततः बाईपास और नष्ट हो जाएंगी। 

मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अधिनियम पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता को लेकर चिंता जताई गई है कि इसके जरिए बुवाई के समय "सुनिश्चित आय" के नाम पर, किसानों को अनुचित शर्तों और उपज की अस्वीकृति, विलंबित भुगतान और अपर्याप्त निवारण तंत्र जैसी शोषणकारी परेशानी का सामना करना होगा। 

आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम के जरिए होर्डिंग और ओवर स्टॉकिंग पर नियंत्रण में ढील दी गई है। इससे कीमतों में वृद्धि होगी और किसानों का इस पर से नियंत्रण खो जाएगा कि उन्हें कौन सी फसल उगानी है क्योंकि निजी मंडियां अपने हितों के अनुसार इसका फैसला करेंगी।

किसान आंदोलन दुनिया के सबसे लंबे समय तक चलने वाले लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण आंदोलनों में से एक है। इस प्रदर्शन को अब व्यापक लोकतांत्रिक आंदोलन के रूप में देखा जा रहा है। अब यह देखा जाना बाकी है कि क्या निजीकरण पर पूरी तरह से जोर देने वाली सरकार किसानों की मांग के आगे झुकने के लिए मजबूर होगी या नहीं।

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