बिना दोष सिद्ध हुए सज़ा काट रहे 'भारतीय जेलों' के 69% क़ैदी

by Siddharth Chaturvedi 2 years ago Views 8864

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट कहती है कि भारत में कुल कैदियों में से दो-तिहाई बिना दोष सिद्ध हुए ही कैद में हैं।

69% of prisoners in Indian jails are being punishe
भारत की जेलों में बंद 69% कैदी विचाराधीन हैं। यानी कि भारत की जेलों में बंद हर 10 में से 7 कैदी अंडर ट्रायल है।अंडर ट्रायल का मतलब है वैसे बंदी जिन्हें अदालत से सजा नहीं मिली है फिर भी जेल में हैं और ट्रायल प्रक्रिया पूरी होने का इंतजार कर रहे हैं। बहुत संभव है कि इनमें से कई कैदी बरी होकर बाहर भी जायें लेकिन धीमी न्यायिक प्रक्रिया और संसाधनों की कमी की वजह से उन्हें अपनी ज़िंदगी जेल में गुज़ारनी पड़ रही है।

यह तथ्य इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2020 के अध्ययन में सामने आया है। टाटा ट्रस्ट ने कुछ अन्य संस्थानों के सहयोग से इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2020 जारी की है। यह रिपोर्ट देश के अलग-अलग राज्यों की न्याय करने की क्षमता का आकलन करती है।


इंडिया जस्टिस रिपोर्ट चार श्रेणियों में सर्वे के आधार पर तैयार की गई है: पुलिस, न्यायपालिका, जेल और कानूनी मदद।

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट कहती है कि भारत में कुल कैदियों में से दो-तिहाई बिना दोष सिद्ध हुए ही कैद में हैं। इन पर न्यायिक प्रक्रिया चल रही है। न्यायिक भाषा में इन्हें विचाराधीन कैदी कहा जाता है। विचाराधीन कैदी वे हैं जिन्हें कैद में रखा गया हो और वह अपने अपराध की पुष्टि के लिए मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे हों।

रिपोर्ट के अनुसार भारत की जेलों में भीड़-भाड़ वाली स्थिति है। यानी कि यहाँ क्षमता से ज़्यादा कैदी हैं। 2016 में जेल ऑक्युपेंसी रेट 114% थी जो 2019 में बढ़कर 119% हो गयी है।

वहीं राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 5 साल से ज़्यादा समय के विचाराधीन कैदियों की संख्या में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है।

भारत की जेल में प्रत्येक दोष सिद्ध कैदी पर दो अंडर ट्रायल कैदी हैं। लॉकडाउन के कारण हो रही देरी और वकीलों के कोर्ट तक न पहुँच पाने से कैदियों का अधिकार और ज़्यादा प्रभावित हुआ है।

देश में कैदियों की संख्या बढ़ी है। 2016 में देश में 4 लाख 33 हज़ार 3 कैदी थे, जबकि 2019 में यह संख्या बढ़कर 4 लाख 78 हज़ार 600 हो गयी। हाँलाकि हैरान करने वाला पक्ष यह है कि देश में जेलों की संख्या कम हो गई है। 2016 में देश में 1,412 जेल थीं जो अब कम होकर 1,350 हो गयी हैं। इसी वजह से जेलों में भीड़ और बढ़ी है।

आँकड़ों के मुताबिक दिल्ली के जेलों में कैदियों की संख्या सबसे ज़्यादा 175 फ़ीसदी है यानी कि यहाँ जिन जेलों में 100 कैदियों के रहने की क्षमता है वहां 175 कैदी रह रहे हैं। जबकि उत्तर प्रदेश में स्थिति 168 फ़ीसदी है।

देश की सेंट्रल जेलों में ज़्यादा भीड़ है। रिपोर्ट से एक ख़ास बात सामने आयी है कि जेलों में एचआईवी, यौन संक्रमित रोग, हेपेटाइटिस बी और सी का प्रसार, सामान्य आबादी की तुलना में 2 से 10 गुना अधिक है। रिपोर्ट के मुताबिक उनकी पूरी जानकारी नहीं मिल पायी है लेकिन दिसंबर 2020 तक 18,000 से अधिक कर्मचारी इन बीमारियों की चपेट में थे।

जेलों में होने वाली मौतें भी चिंताजनक हैं।  2011 में प्रति 10 लाख में मौतों की संख्या 311.8 थी जो कि 2016 में बढ़कर 382.2 हो गई। 2019 में इसमें मामूली गिरावट हुई और यह आँकड़ा 370.87 पहुंच गया है।

वहीं, भारत की जेलों में अधिकारियों की भी बड़ी संख्या में कमी है। अधिकारी स्तर पर बात करें तो आधे राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में तीन में से एक पद ख़ाली है। उत्तराखंड में जेल प्रशासन के 75 फ़ीसदी पद खाली हैं, वहीं तेलंगाना ने इस दिशा में सुधार किया और वहाँ एक प्रतिशत से से भी कम वैकेंसी हैं। झारखंड में 64 फ़ीसदी पद ख़ाली हैं।

मॉडल जेल मैनुअल 2016 के मुताबिक प्रत्येक 200 कैदियों के लिए एक सुधारक अधिकारी और प्रत्येक 500 कैदियों पर एक मनोचिकित्सक होना चाहिए। इसकी तुलना में अगर राष्ट्रीय औसत की बात करें तो 1,617 कैदियों पर एक कल्याण अधिकारी और प्रत्येक 16,503 कैदियों पर एक मनोचिकित्सक है। राज्यों के स्तर पर तो हालत और भी खराब है। यहां पर प्रति 50,649 कैदी पर एक मनोचिकित्सक है।

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