42 महीने में दिल्ली के 37 पुलिसकर्मियों ने की ख़ुदकुशी

क्या पुलिस की नौकरी के साथ मिलने वाला तनाव जानलेवा है? कम से कम दिल्ली पुलिस के संदर्भ में तो इस सवाल का जवाब 'हाँ' ही है। जनवरी 2017 से जून 2020 तक दिल्ली पुलिस के 37 कर्मचारियों और अधिकारियों ने आत्महत्या की है यानी हर 35 दिन में एक ख़ुदकुशी। इनमें 14 ने ड्यूटी के दौरान जान दी, जबकि 23 ने 'ऑफ ड्यूटी' आत्महत्या की।
दिल्ली पुलिस में इन 42 महीनों में हुई ख़ुदकुशी का यह आँकड़ दिल्ली पुलिस ने ही दिया है। समाचार एजेंसी पीटीआई ने सूचना के अधिकार क़ानून के संदर्भ में यह जानकारी माँगी थी। पीटीआई के इस आरटीआई आवेदन में इस अवधि के दौरान ख़ुदकुशी करने वाले पुलिसकर्मियों की तादाद और रैंक पूछी गयी थी।
इस आरटीआई के जवाब में पुलिस विभाग ने बताया है कि इस दौरान ख़ुदकुशी करने वालों 13 सिपाही, 15 हेड कांस्टेबल, तीन सहायक उपनिरीक्षक (एएसआई), तीन उपनिरीक्षक (एसआई) और दो इंस्पेक्टर शामिल हैं। ड्यूटी के दौरान ख़ुदकुशी करने वाले 14 पुलिसकर्मियों में छह हेड कांस्टेबल, चार कांस्टेबल, एक एएसआई और एक एसआई है। जबकि नौ सिपाहियों, छह हेड कांस्टेबल, दो एसआई और एक इंस्पेक्टर ने 'ऑफ ड्यूटी' ख़ुदकुशी की। ख़ुदकुशी करने वाले पाँच कर्मियों के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिल सकी है कि उन्होंन ड्यूटी पर रहते ख़ुदकुशी की या ड्यूटी के बाद। ख़ुदकुशी करने वालों में दो महिला पुलिसकर्मी भी शामिल हैं। दोनों सिपाही थीं। ख़ुदकुशी का ये आँकड़ा बताता है कि देश की राजधानी में तैनात पुलिसकर्मियों को भी कितना तनाव झेलना पड़ता है। ज़्यादातर थानों में स्टाफ़ की कमी है जिसकी वजह से पुलिसकर्मियो को 12-12 घंटे तक ड्यूटी करनी पड़ती है। कई पुलिसकर्मियों की ड्यूटी पिकेट पर लगाने के साथ ही उन्हें बीट की ज़िम्मेदारी भी दे दी जाती है। उन्हें साप्ताहिक अवकाश तक नहीं मिलता। आत्महत्या का राष्ट्रीय औसत प्रति लाख 11 है। इसे देखते हुए दिल्ली पुलिसकर्मियों की ख़ुदकुशी की तादाद काफी ज्यादा है। यह बताता है कि पुलिसकर्मी शीरीरिक और मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं और इसकी वड़ी वजह उनके कार्यस्थल और काम के प्रकृति की समस्यायें हैं। पुलिस रिफ़ार्म को लेकर की गयीं तमाम सिफ़ारिशों में मानवीय पुलिस की स्थापना पर बार-बार ज़ोर दिया गया है। एक सभ्य समाज में मानवीय पुलिस का होना ज़रूरी बताया गया है, पर यह तभी संभव हो सकता है जब पुलिस वालों को मानवीय परिस्थितियाँ दी जायें। उनसे भी आठ घंटे ही काम लिया जाये और पर्याप्त छुट्टियाँ दी जायें ताकि वे परिवार के साथ ज़्यादा समय बिता सकें। इससे उनमें मानवीय भावनाएँ प्रबल होंगी और पुलिस पर लगने वाले क्रूरता के तमाम आरोपों में कमी आयेगी। लेकिन सरकारें आती जाती रहती हैं, पुलिस को मानवीय बनाने का एजेंडा पीछे ही छूटा रहता है। ख़ुदकुशी के ये आँकड़े यही बताते हैं।
इस आरटीआई के जवाब में पुलिस विभाग ने बताया है कि इस दौरान ख़ुदकुशी करने वालों 13 सिपाही, 15 हेड कांस्टेबल, तीन सहायक उपनिरीक्षक (एएसआई), तीन उपनिरीक्षक (एसआई) और दो इंस्पेक्टर शामिल हैं। ड्यूटी के दौरान ख़ुदकुशी करने वाले 14 पुलिसकर्मियों में छह हेड कांस्टेबल, चार कांस्टेबल, एक एएसआई और एक एसआई है। जबकि नौ सिपाहियों, छह हेड कांस्टेबल, दो एसआई और एक इंस्पेक्टर ने 'ऑफ ड्यूटी' ख़ुदकुशी की। ख़ुदकुशी करने वाले पाँच कर्मियों के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिल सकी है कि उन्होंन ड्यूटी पर रहते ख़ुदकुशी की या ड्यूटी के बाद। ख़ुदकुशी करने वालों में दो महिला पुलिसकर्मी भी शामिल हैं। दोनों सिपाही थीं। ख़ुदकुशी का ये आँकड़ा बताता है कि देश की राजधानी में तैनात पुलिसकर्मियों को भी कितना तनाव झेलना पड़ता है। ज़्यादातर थानों में स्टाफ़ की कमी है जिसकी वजह से पुलिसकर्मियो को 12-12 घंटे तक ड्यूटी करनी पड़ती है। कई पुलिसकर्मियों की ड्यूटी पिकेट पर लगाने के साथ ही उन्हें बीट की ज़िम्मेदारी भी दे दी जाती है। उन्हें साप्ताहिक अवकाश तक नहीं मिलता। आत्महत्या का राष्ट्रीय औसत प्रति लाख 11 है। इसे देखते हुए दिल्ली पुलिसकर्मियों की ख़ुदकुशी की तादाद काफी ज्यादा है। यह बताता है कि पुलिसकर्मी शीरीरिक और मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं और इसकी वड़ी वजह उनके कार्यस्थल और काम के प्रकृति की समस्यायें हैं। पुलिस रिफ़ार्म को लेकर की गयीं तमाम सिफ़ारिशों में मानवीय पुलिस की स्थापना पर बार-बार ज़ोर दिया गया है। एक सभ्य समाज में मानवीय पुलिस का होना ज़रूरी बताया गया है, पर यह तभी संभव हो सकता है जब पुलिस वालों को मानवीय परिस्थितियाँ दी जायें। उनसे भी आठ घंटे ही काम लिया जाये और पर्याप्त छुट्टियाँ दी जायें ताकि वे परिवार के साथ ज़्यादा समय बिता सकें। इससे उनमें मानवीय भावनाएँ प्रबल होंगी और पुलिस पर लगने वाले क्रूरता के तमाम आरोपों में कमी आयेगी। लेकिन सरकारें आती जाती रहती हैं, पुलिस को मानवीय बनाने का एजेंडा पीछे ही छूटा रहता है। ख़ुदकुशी के ये आँकड़े यही बताते हैं।
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